नीरज राय की फेसबुक वॉल से..
ये बाबा रामदेव और डॉक्टर्स की लड़ाई नहीं है। मामला कुछ और है। खेल ब्रांड्स का है। ये ब्रांड्स वॉर है। ब्रांड एलोपैथ और ब्रांड आयुर्वेद का मसला है। इसे ऐसे समझिए…
मार्केट लीडर होना हर ब्रांड की चाहत होती है। लेकिन मार्केट लीडर को अपनी पोजिशन बचाये/बनाये रखना लीडर बनने से भी बड़ी चुनौती होती है।
बात करीब 2 साल पहले की है, या यूं कहिए कोरोना काल से महज चंद महीनों पहले की बात है। मेंस ग्रूमिंग का बिजनेस करने वाली देश की दिग्गज कम्पनी ने भारत के एक बड़े (शायद सबसे बड़े) अखबार से करार किया था। इस करार के तहत अखबार को कॉलेज, विश्वविद्यालयों और निजी संस्थानों में पर्सनैलिटी डेवलपमेंट का वर्कशॉप आयोजित करना था। जहां कुछ एक्सपर्ट जाते और युवाओं को पर्सनैलिटी डेवलपमेंट के गुर सिखाते। इन्हीं में से एक एक्सपर्ट इस बात पर भी जोर देता कि आकर्षक पर्सनैलिटी के लिए क्लीन शेव होना परम आवश्यक है। वह ये बताता की दाढ़ी-मूछ आपकी करियर ग्रोथ में आड़े आ सकती है। दूसरे दिन इस वर्कशॉप का लब्बोलुआब अखबार को छापना होता था। इस पूरे आयोजन में मेंस ग्रूमिंग का कारोबार करने वाली कंपनी का कोई जिक्र नहीं होता था। उसका काम सिर्फ अखबार को भुगतान करना था। क्योंकि उसे पता था, कि 4 लोग भी रेजर खरीदने आएंगे तो 2 तो उसी का प्रोडक्ट खरीदेंगे या इससे ज्यादा भी।
दरअसल पिछले कुछ सालों से युवाओं में विराट कोहली लुक ज्यादा पसंद आने लगा था। क्लीन शेव रहने वाले लोग भी दाढ़ी रखना शुरू कर दिए थे। हालांकि ब्लेड, रेजर, आफ्टर शेव, शेविंग जेल और फोम बनाने वाली कंपनियों की बिक्री पर अभी भी कोई खास असर नहीं पड़ा है। लेकिन इन उत्पादों का बिजनेस करने वाले एक मार्केट लीडर के लिए ये एक खतरे की घण्टी जरूर हो सकती है और अगर इस सेचुवेशन का कोई कंपनी सही सही आकलन लगा लेती है तो यह उसकी व्यवसाय कुशलता मानी जायेगी।
बिल्कुल यही स्थिति बाबा रामदेव और एलोपैथ के बीच में बनी हुई है। बाबा योग के साथ साथ आयुर्वेद के भी ब्रांड एम्बेसडर हो गए हैं। उनके किसी भी उत्पाद के विज्ञापन में केंद्र में वही होते हैं। दूसरी ओर दवा कंपनियों के लिए भारत एक बड़ा बाजार है। यहां महज एक सरकार की इजाजत से दुनिया के कई देशों के बराबर बाजार मिल सकता है। आप ये जानकर हैरान हो जाएंगे कि आज की तारीख में किसी भी दवा कंपनी का पूरा फोकस ब्लड प्रेशर, शुगर, हर्ट या अर्थराइटिस जैसी बीमारियों के इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवाओं पर ज्यादा है। क्योंकि इन बीमारियों में एलोपैथी का इलाज लंबा चलता है, ज्यादातर मामलों में तो जीवन पर्यंत। यानी एक बार कोई व्यक्ति अगर बीमारी की चपेट में आ गया तो जीवन भर वह किसी दवा का कस्टमर हो सकता है। जरा बारीकी से विचारिये कि असल खेल क्या है। अब आप खुद सोचिए 135 करोड़ लोगों के मार्केट में लीडर बनने का सपना सजोंये कोई दवा कंपनी भला क्यों चाहेगी कि महज प्राणायाम उसका बिजनेस खराब कर दे। कोई दवा कंपनी भला क्यों चाहेगी कि लोगों का झुकाव तुलसी और गिलोए के काढ़े की तरफ बढ़े।
मेंस ग्रूमिंग की मार्केट लीडर कंपनी जिस तरह से खुद बिना आगे आये एक अखबार को सामने करके प्रायोजित वर्कशॉप और आर्टिकल के जरिये अपना पोजिशन बचाने के जुगत कर सकती है। तो एलोपैथ फार्मा इंडस्ट्री कबसे साधू हो गई?? चूंकि फार्मा कंपनियां रेगुलेटरी पाबन्दियों की वजह से अपने उत्पादों का डायरेक्ट विज्ञापन नहीं कर सकती हैं। इसलिए अपना मार्केट बनाने और बढाने के लिए बगैर आगे आये डॉक्टरों का सहारा लेती हैं।